- भारत में 70% अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है, जबकि कृषि योग्य भूमि विश्व की कुल कृषि योग्य भूमि के सापेक्ष लगभग 40 प्रतिशत है। स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता विश्व के विकसित राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम है।
- अतः देश को खाद्यान्न में स्वावलम्बी होने के लिए प्रति हेक्टेयर उत्पादन एवं उत्पादकता में बृद्धि करना नितान्त आवश्यक है। उत्पादन एवं उत्पादकता में बृद्धि के लिए कृषि निवेशों की अह्म भूमिका होती है, जिसमें से बीज एक महत्वपूर्ण निवेश है |
- वैज्ञानिक अनुसंधानों से विदित होता है कि 15-20 प्रतिशत की उत्पादन में वृद्धि उच्च गुणवत्तायुक्त बीजों के उपयोग से होती है। हरित क्रान्ति के पश्चात् यह आवश्यक हो गया था कि देश की कृषि संस्थाएं उच्च गुणवत्तायुक्त बीजों का उत्पादन कर कृषकों को उपलब्ध करायें।
- उत्तर प्रदेश राज्य के विभाजन से पूर्व बीजो की आपूर्ति हेतु उत्तर प्रदेश एवं तराई विकास निगम का मुख्यालय पंतनगर में स्थापित था
- उत्तर प्रदेश राज्य के विभाजन के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश बीज एवं तराई विकास निगम, जिसका मुख्यालय उत्तराचंल में अवस्थित था, अधिकांश ढॉंचा उत्तराचंल राज्य में चला गया।
- प्रदेश में बीजो की उपलब्धता को सुनिश्चित कराने हेतु शासनादेश सं०- 2397/12-2-2021-एस.35/2000 दिनांक 29 जून 2002 को उत्तर प्रदेश बीज विकास निगम की स्थापना की गई
- शासनादेश के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश बीज विकास निगम का पंजीयन रजिस्टार ऑफ कम्पनी एक्ट में 15 फरवरी, 2002 से शुरू कराया गया
- उत्तर प्रदेश बीज विकास निगम का व्यवसाय 09 दिसम्बर, 2002 से शुरु किया गया
निगम की स्थापना का उद्देश्य
- अपने कार्यक्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में उचित मूल्य पर समय से उन्नतशील प्रजातियों के बीज उपलब्ध कराना।
- उच्च उत्पादकता वाली प्रजातियों के बीजों को विकसित करने के लिए अनुसंधान संस्थानों से समन्वय स्थापित करना तथा परीक्षण के आधार पर सर्वोत्तम प्रजातियों का चयन कर उनका जनक व आधारीय बीजों का वांछित मात्रा में प्रबंध करना।
- आवश्कतानुसार प्रमाणित बीजों का पंजीकृत बीज उत्पादकों से उपयुक्त प्रक्षेत्रों में उत्पादन करना।
- विभिन्न फसलों के विकसित संकर प्रजातियों का प्रमाणित बीज उत्पादित कर कृषकों को उपलब्ध कराना जिसके लिए पैतृक लाइनों का बीज प्राप्त करने के लिए संस्थाओं को समन्वय स्थापित करना।
- उत्पादित बीजों का अन्तःग्रहण, गुणवत्ता नियंत्रण, संसाधन, पैकेजिंग, भण्डारण एवं विपणन के लिए समुचित प्रबंधन करना।
- कृषकों की नियमित सेवा, विकास एवं प्रगति हेतु आन्तरिक श्रोतों का संस्थापन एवं समुचित दोहन।